मन का आलस

मन का आलस
ऐसा आलस नहीं है
जैसा हमने समझा है,
यह एक सनक है,
अनैसर्गिक नियमों से
जूझता एक ठनक हैं.

यह अथक द्वंद्व को
संभालता एक साहस हैं,
यह एक धैर्य हैं, एक साधना है
मन के उथान की
खास परिकल्पना हैं.

यह ठहराव के आगोश में
पसरा एक होश हैं,
जो हालातो को
उनके हालत पे छोड़ता,
चलन के नए रास्ते तलाशता
जीवन की नयी सम्भावना हैं.

मन का आलस
इसलिए इतना बदनाम नहीं है
की ये कुछ करना नहीं चाहता
वरन ये स्वाभाव से ही
दुहराव का विद्रोही हैं.

इसे पुराना दुबारा
करने से बेहतर
नए के ख्याल में
बार-बार सोना
बहुत पसंद हैं.

बदलाव की इतनी
औकात कहा
जो नियमो के सहारे चले,
ये तो बस
आलस के हठ
का नजारा हैं,
फुर्ती का
सिमटता दायरा हैं.

PS:
Written under candle light in power cut due to infamous Laziness in electricity bill payment.
19/11/11
-mithilesh

आज माथे से पसीने ऐसे बहे

आज माथे से पसीने ऐसे बहे
की आंसू भी चुपके निकल आए,
अरसे से ठहरे थे
आज अबाध बह गए.

खूब आते हैं पसीने आजकल
वजह-बेवजह, बेमौसम
पानी बहा जाते हैं ,
तिनके के निचोड़ को
पुरे टहनी की तोड़
बता जाते हैं .

कहा मिलता हैं अब
पीने को सस्ता पानी,
कहा धुल पते है हम
नंगे  हमाम में,
फिर भी बहाते हैं हम
मंहगे पसीने के कतरे .

चेहरे की रंगत गयी
कई गढ़े खुद गए
और ,
आँखों के पानी
पास के सबसे गहरे काले गढ़े
भरने के होड़ में लग गए.

आज माथे से पसीने ऐसे बहे  . . .


PS: Written on Tuesday, 19/07/2011 in NZM Bareilly Intercity on way to Bareilly ...

चार दीवारों की एक कोठरी

चार दीवारों की एक कोठरी
कोठरी में झूलता एक पंखा
जिसमें एक बाप के दिल सा
सख्त पल्ला  हैं ,

अंदर एक मेज भी हैं
मेंज से जुडी एक कुर्सी
व कुर्सी पे ओंधी लेटी तौली,

मेज पे कुछ कुछ किताबें हैं,
धुल से नहाई इन किताबों के बीच
छिपी एक नन्ही सी डायरी हैं |

आज भी याद हैं हमें
छोटे-छोटे पन्नो की डायरी में
स्याही से लिखी
फुरसत के दिनों की
वो सुलझी हुयी शायरी,

याद हैं हमें
एकतरफा दीवालों से लगी
सख्त मुलायम सा वो बिछावन
व बिछावन पे, दीवाल के कोने में
लेटा वों औंधा मन |

कितना सरल था वो पल
जब आसन भाषा
के जज्बातों को
जाहीर करने के
थें आसन तरीके ,

आज मन बैठ जाता हैं
ख्यालों के बोझ से
जब कई आसन तरीके के बावजूद
व्यक्त नहीं कर पता
एक छोटा सा ख्याल,

और दिल फिर से
वही ढूढता हैं
हर ओर से घिरी एक कोठरी
जिसमें कैद कर सकू
आसन तरीको में
लुप्त हो गयी
सरल से पल को |   

ना वो प्यार रहा, ना वों बात रही

छोटा सा साथ
छोटा सा कारवां
छोटे से कारवें में
छोटी सी अहसास ,

ना वो साथ रहा
 ना वो कारवां रही
ना उस कारवें की
वो अहसास रही ,

ना वो प्यार रहा
ना वों बात रही
ना वों दिल रहा
ना वों जज्बात रही |

जो मिट रहा हैं
क्या वो धब्बा था !
जो छुट रहा हैं
क्या वो कुछ खास था!

देखों इन धब्बों के पीछे
कितनी लकीरे छिप रही हैं
कुछ उकेरा था हमने कभी
बड़े इत्मिनान से
देखों अब कैसे
सारा आलस पसर गया हैं |

ना वों असर रहा
ना वों इत्मिनान रही
ना वों प्यार रहा
ना वो अरमान रही |

The Puzzle of a simple story ...

The puzzle starts with Utopian loop of stories ...
In the beginning he was running and turning, making shift to every direction.
Nobody stalked him ever for a uni direction.
He was happily enrolled to his own course of life.
He was often mistaken, misinterpreted.
He proved himself many times, in multi-ways.

Time changed.
Things turned upside down and he run.
And run-ed to keep pace with the time.
And Rest were OK.
The end of the story. 

Pause!

This is not Storybook  endings.
Fairy tales is  not coming true so simply...

मन महसूस करता हैं

"उडती अहसासों में
चलती जज्बातों में ,
मन कुछ बेमन सा
महसूस करता हैं |

वो उडती थी
वो चलती थी ,
मन ही मन में
न जाने कैसे
ये सबकुछ महसूस करती थी |

ये उड़न अधूरी हैं
ये चलन कहा पूरी हैं ,
ये मन कब चुप बैठा हैं
जाने-अनजाने
कुछ भी महसूस करता हैं |

उड़न की आकांक्षा
चलन की महत्वाकांक्षा ,
मन का पंक्षी
आप ही
सब पाप महसूस करता हैं |

अगर हम इसे उड़न कहते हैं
अगर यही जीवन की चलन हैं ,
तो फिर मन औरों के मन के
दमन को क्यों नहीं महसूस करता हैं |

चालों हम उड़ जायें
कही और चले जाये ,
मन के मन से परे
महसूस के अहसास को
महसूस कर जाये | "