चार दीवारों की एक कोठरी

चार दीवारों की एक कोठरी
कोठरी में झूलता एक पंखा
जिसमें एक बाप के दिल सा
सख्त पल्ला  हैं ,

अंदर एक मेज भी हैं
मेंज से जुडी एक कुर्सी
व कुर्सी पे ओंधी लेटी तौली,

मेज पे कुछ कुछ किताबें हैं,
धुल से नहाई इन किताबों के बीच
छिपी एक नन्ही सी डायरी हैं |

आज भी याद हैं हमें
छोटे-छोटे पन्नो की डायरी में
स्याही से लिखी
फुरसत के दिनों की
वो सुलझी हुयी शायरी,

याद हैं हमें
एकतरफा दीवालों से लगी
सख्त मुलायम सा वो बिछावन
व बिछावन पे, दीवाल के कोने में
लेटा वों औंधा मन |

कितना सरल था वो पल
जब आसन भाषा
के जज्बातों को
जाहीर करने के
थें आसन तरीके ,

आज मन बैठ जाता हैं
ख्यालों के बोझ से
जब कई आसन तरीके के बावजूद
व्यक्त नहीं कर पता
एक छोटा सा ख्याल,

और दिल फिर से
वही ढूढता हैं
हर ओर से घिरी एक कोठरी
जिसमें कैद कर सकू
आसन तरीको में
लुप्त हो गयी
सरल से पल को |   

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